Tuesday, December 18, 2007

अपना चिट्ठा/जालस्थल लुटेरों से बचायें 5

कोई भी चीज खैरात में बंटती है, और वह भी एक लम्बे समय तक, तो लेनदार उस चीज पर अपना हक समझने लगता है. सभी मुफ्त जालस्थलों के साथ ऐसा ही होता है, एवं इस कारण अधिकतर मुफ्त-जाल-नागरिक नियमित रूप से अपने जालगृह की प्रतिलिपि बनाने की आवश्यक सावधानी नहीं लेते है.

मेरे पहले 4 जालस्थल फोकट के थे. इनको मैं ने Trueptah.com नामक कम्पनी के सर्वर पर स्थापित किया था. नया नया शौक था, जाल सम्पर्क बेहद महंगा था, एवं सरकारी एकाधिपत्य के कारण एक जाल कनेक्शन मिलने के लिये छ: महीने तक इंतजार करना पडता था. कोच्चि में सम्बन्धित क्लर्क या तो हमेशा छुट्टी पर रहता था, या अलमारी की चाबी हमारे पहुंचने के दिन जादूई तरीके से अदृश्य हो जाती थी. जब सब कुछ अनुकूल हो जाता था तब फारम खतम रहता था. अत: मैं घर से 14 किलोमीटर शहर के एकमात्र जालकेफे में 150 रुपया प्रति घंटे के हिसाब से भुगतान कर, एक दिन में आठ आठ घंटे बैठ कर ये काम करता था. एक प्रकार का नशा था. लेकिन मुझे अपना बाजार एवं मांग का अनुमान हो गया था. छ: महीने में ही मेरे सारे जालस्थल बेहद जनप्रिय हो गये. (सब कुछ अंग्रेजी में था). एक साल मे कुछ आय भी होने लगी. तब तक जालकेफे 120 प्रति घंटे तक उतर आया था, एवं इस आय से यह खर्चा एवं कुछ अतिरिक्त भी निकल आता था. अचानक एक दिन सर पर बिजली कौंधी.

कम्पनी ने अपने सारे मुफ्तखोर सदस्यों को सूचना दी कि अब उनकी सदस्यता खतम की जाती है. आगे बढना है तो डालर में मासिक किराया दो. कुल 24 घंटे का समय बचा था, लेकिन जालकेफे के कार्यकाल में उस दिन सिर्फ 10 घंटे और बचे थे. एक फ्लापी डिस्क 60 रुपये का आता था. चार जालस्थलों की प्रतिलिपि बनाने का सवाल था. कंट्रोल पेनल जैसा कोई आसान चीज उपलब्ध नहीं था. एक एक करके लेखों की प्रतिलिपि बनाना शुरू किया. एक घंटे में चार लेख लोड कर पाता था क्योंकि दो समानांतर टेलीफोन लाईन एवं दो मॉडेम द्वारा उस केफे के 40 संगणक जुडे हुए थे. वह रात मेरे जालजीवन की पहली अंधेरी रात थी. उनको “लुटेरे” कहूं या न कहूं, मैं उस रात एक बेहद “लुटा” प्राणी था.

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ऊपर दिये गये चित्र में इसी कम्पनी का चित्र है जो मैं ने आज ही लिया है. उन लोगों ने लगभग 50,000 मुफ्त-जाल-नागरिकों को एक आज्ञा के साथ बेदखल कर दिया था. हां इन जालस्थलों के कारण यह कम्पनी बेहद प्रसिद्ध हो गई थी एवं तबसे वह अच्छा पैसा बना रही है. पिछले 10 सालों में लगभग 80% या उससे मुफ्त अधिक कम्पनियों ने इस तरह की सेवा अचानक बन्द कर दी है, अत: मुफ्त सेवा का उपयोक कर जालस्थल में नाम एवं दाम (आय) का जरिया पाने के बाद एक दिन अचानक लुटपिट कर निकलने से अच्छा यह होगा कि साल भर के लिये 700 या 800 रुपल्ली खर्च करें. याद रखें कि यह आपके 300 से लेकर 1500 घंटे की मेहनत के सामने सिफ कौडियों के बराबर है. हां यदि कुछ सालों तक मुफ्त जाल पर रहने की मजबूरी है तो कम से कम हफ्ते मे एक बार अपने जालस्थल/चिट्ठे की प्रतिलिपि जरूर बना लें. यदि मुफ्त में मिले जालस्थल में सम्पूर्ण जालस्थल की समग्र प्रतिलिपि बनाने की सुविधा नहीं है तो हर रचना की एक प्रति अपने संगणक पर एवं किसी अपेक्षाकृत सुरक्षित माध्यम (जैसे सीडी) पर नियमित रूप से रखना न भूलें. (यदि आप किसी “वेब स्टिपर” का उपयोग जानते हों तो यह इस तरह की प्रतिलिपि बनाने में आपकी मदद कर सकता है).

जब किसी मुफ्त सुविधा को कोई दाता अचानक बन्द कर देता है तो वह लुटेरे की सही परिभाषा में नहीं आता है, लेकिन उनके बारें में जानकारी इस परम्परा में इस लिये जोड दी गई है जिससे यह परम्परा जालस्थल हानि विषय पर एक बृहद सन्दर्भ का काम कर सके. इतना ही नहीं, किसी व्यक्ति का चिट्ठा/जालस्थल किसी भी तरह से उसके हाथ से अचानक निकल जाये, वह तो लुट जाता है. अत: कोई जान कर लूटे या किसी आर्थिक/तकनीकी कारण से आपका जालस्थल आपसे ले ले, उससे बचाव के उपाय आपस में काफी संबन्ध रखते हैं. इसलिये भी मैं इस विषय के सारे पहलुओं पर वृहद प्रकाश डालने की कोशिश कर रहा हूं. मुझे यह सब सीखने के लिये दस साल लगे. मेरे पच्चीस के करीब जालस्थलों पर हजारों घंटों की मेहनत बेकार गई. ईश्वर करे कि यह लेखन परम्परा आपको इस तरह के नुक्सानों से बचाये — खास कर यदि जाल अपकी आय का महत्वपूर्ण या मुख्य जरिया है.

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5 comments:

अजित वडनेरकर said...

शास्त्री जी बहुत उपयोगी पोस्ट और काफी रोचक तरीके से आपने सारी जानकारी दी है। आपकी बात का अर्थ तो यह हुआ कि ब्लागस्पाट भी ऐसा कर सकता है....हम जैसे तकनीकी मासूमों का क्या होगा तब...हमें तो आप लोगों की तकनीकी सुझावों वाली बातें भी कई बार समझ में नहीं आतीं। मेरे ब्लाग की सज्जा अचानक कुछ दिनों से बिगड़ गई। कैसे , नहीं जानता । पर इसे ठीक भी करना नहीं आता । हिम्मत भी ऩहीं है , कहीं सब कुछ नष्ट न हो जाए। इसी लिए कई बार लगता है कि सब कुछ छोड़ कर पहले की तरह सिर्फ स्वांतःसुखाय लिखू। अवसर मिलने पर किताब छपवा लूं।

दिनेशराय द्विवेदी said...

मुझे पहले से ऐसी ही आशंका थी. प्रतिलिपियां तो साथ के साथ बनाना ही चाहिए।

दिनेशराय द्विवेदी said...

प्रतिलिपि बनाने का आसान साधन- एम एस वर्ड, लाइव राईटर या अन्य किसी भी प्रोसेसर पर अपना आलेख प्रोसेस करें। फिर उसे (सेव) रक्षित कर (कॉपी) नकल करें और अपने ब्लॉग पर पेस्ट या पोस्ट डालें। आप का आलेख आपके कम्प्यूटर पर सुरक्षित रहेगा। आवश्यकता होने पर सीडी पर अंकित कर लें।
पोस्ट के लिए आलेख और अन्य शब्द सही हैं न?

पारुल "पुखराज" said...

shaastrii jii,aapkaa margdarshan sadaiv bahut upyogii saabit hota hai...bahut aabhaar

akumarjain said...

शास्त्री जी,
इस हिसाब से blogspot.com और wordpress.com भी धोखा दे सकते है, तो क्यों न अभी से ही अपना डोमेन नाम ले कर काम किया जाय।